बिहार की राजनीति में शामिल बड़े नेताओं की इन दिनों आने वाला दिन संकटमय नजर आ रहा है. खासकर सत्ता में बैठे सेक्युलर और दलित छवि वाले नेताओं को इस बार यह डर सता रहा होगा कि निकट भविष्य में उन्हें दोबारा सत्ता मिलने में मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है या उन्हें गद्दी नहीं भी मिल सकती है. क्योंकि मौजूदा समय में हुए कुछ घटनाएं राजनीति को बदलने का संकेत दे रही है.
उनमें से एक बिहार के सात जिलों में हुई साम्प्रदायिक हिंसा भी शामिल हैं, जिसमें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जैसे सभी धर्मों का सम्मान करने वाले नेताओं की छवि भी अपने साथी बीजेपी नेताओं के वजह से ख़राब हुई है. जबकि हिंसा भड़काने के मामलों में कई बीजेपी नेताओं के नाम भी सामने आये हैं. जिन्हें गिरफ्तार भी किया गया. जिनमें केंदीय मंत्री के बेटे और बीजेपी नेता अर्जित शाश्वत चौबे भी शामिल हैं. इस घटना के बाद ही रामविलास पासवान, उपेन्द्र कुशवाहा, नीतीश कुमार और पप्पू यादव जैसे जीते हुए नेताओं को एक साथ देखा गया. इनके बीच बढ़ी नजदीकियों से बीजेपी भी हैरान हुई होगी. क्योंकि हिंसा मामलों के बाद सीएम बीजेपी नेताओं से कटने लगे हैं.
इसके अलावा SC-ST एक्ट में सुप्रीम कोर्ट द्वारा किये गये संसोधन के फैसले के बाद भारत बंद के दिन हुए आंदोलन ने भी बीजेपी और जदयू के साथ साथ कई पार्टियों का हिला कर रख दिया. हालांकि उन पार्टियों को ज्यादा फर्क नहीं पड़ा जिन्होंने दलित समर्थकों का इस आदोलन में साथ दिया था. लेकिन नीतीश और पासवान जैसे तीव्र सोच के नेता इस आंदोलन के जरिए आने वाले समय को पहचान गये होंगे, तभी तो दोनों और भी करीब हो गये. जबकि ये दोनों नेता बाबा साहब के जन्म दिवस के दिन मंच भी साझा करने वाले हैं.
यह देखा भी जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद राजनीतिक पार्टियां खुद को दलितों की सबसे हितैषी पार्टी साबित करने को पूरी कोशिश कर रही है. इतना ही नहीं यह भी कहा जा रहा है कि कई पार्टियों द्वारा दलितों के बड़े वोट बैंक को देखते हुए बिहार में सीएम के चेहरे के रूप में किसी दलित नेता की तलाश की जा रही है, ऐसी मांग भी की जा रही है. दलित वोट बैंक की अहमियत को देखते हुए लोकसभा चुनाव से ठीक पहले हर पार्टी दलितों को अपने पक्ष में करने कोशिश में लग गयी है. ऐसा JDU और लोजपा भी करती हुई नजर आ रही है.
मालूम हो कि नीतीश कुमार भले ही यह कहते हैं उन्हें कुर्सी से कोई प्यार नहीं हैं लेकिन उनकी पार्टी जदयू हमेशा सत्ता रहने की राजनीति करती है, इस बात से भी नहीं नकारा जा सकता है. आपको याद दिला दें कि अपनी नई पार्टी बना चुके जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाने का ऐतिहासिक काम नीतीश कुमार ने ही किया था. वो फैसला भी एक दलित वोटबैंक राजनीति ही मानी जाती थी. नीतीश के वजह से ही जीतन राम मांझी ने 23वें मुख्यमंत्री के रूप में पद की शपथ ली थी.
माना जा रहा है कि मुख्यमंत्री के रूप में जीतन राम मांझी के नाम की पेशकश कर नीतीश कुमार ने पिछड़े वर्ग को खुद से जोड़ने की कोशिश की थी. मांझी नीतीश सरकार में अनुसूचित जाति-जनजाति कल्याण मंत्री रहे हैं. नीतीश कुमार ने जदयू विधायकों की ओर से इस्तीफ़ा वापस लिए जाने के अनुरोध को मानने से इनकार कर दिया था और अपने वरिष्ठ मंत्री जीतन राम मांझी का नाम आगे किया था. शैक्षणिक रूप से स्नातक मांझी ने आजीविका कमाने के लिए एक चरवाहा के रूप में अपना जीवन शुरू किया था. उनके पिता रमनजीत राम मांझी एक भूमिहीन मजदूर थे.
उसके बाद आज फिर यह सवाल उठ रहे हैं तो क्या नीतीश अपने इस फैसले को फिर से दोहराएंगे. क्या किसी दलित नेता को सीएम या किसी और पॉवर वाले मंत्री की कुर्सी पर बैठने का मौका देंगे. यह भी सवाल उठ रहा है कि दलित के बड़े नेता माने जाने वाले रामविलास पासवान या उनके पुत्र चिराग पासवान को क्या सीएम नीतीश केंद्र से से बिहार की राजनीति में लेकर आएंगे. जबकि यह भी कहा जा रहा है कि पासवान इसी बहाने अपने पुत्र को एक दलित का बड़ा चेहरा बनाकर उभार सकते हैं, यदि उन्हें बिहार सरकार में कोई बड़ा पद मिल जाता है तो वो उनकी राजनीतिक कैरियर के लिए प्लस पॉइंट साबित हो सकता है. साथ ही नीतीश के पार्टी JDU का दलित वोट बैंक भी बढ़ सकता है. हालांकि अभी इतंजार करना होगा यह देखने के लिए कि इनका अगला सियासी कदम क्या होता है . लेकिन यह बात भी याद रखना होगा कि राजनीति में आज कुछ भी संभव हैं. ऐसे इनकी दोस्ती आगे तक चल सकती है.