साल 2014 के लोकसभा चुनावों में पार्टी की जीत के लिए हम सभी ने बहुत कठिन परिश्रम की है। हम में से कुछ लोगों ने साल 2004 से 2014 तक केंद्रीय सत्ता पर काबिज यूपीए सरकार के शासन के खिलाफ हर मोर्चे पर संसद से लेकर सड़क तक संघर्ष किया है जबकि कुछ लोग राज्य मुख्यालयों में सत्ता का आनंद उठा रहे थे। जब 2014 में अप्रत्याशित चुनावी नतीजे आए, तब लगा कि यह देश के इतिहास में नया स्वर्णिम अध्याय लिखेगा। तब हम सभी लोगों ने प्रधानमंत्री और उनकी टीम में पूरा भरोसा जताया और उन्हें पूरा समर्थन और सहयोग दिया। अब इस सरकार ने करीब चार साल पूरे कर लिए हैं और इस दौरान पांच बजट पेश कर लिए हैं। इसके अलावा सरकार ने उपलब्ध सभी अवसरों का इस्तेमाल कर लिया है पर परिणाम निराशाजनक रहे हैं। अंतत: यही लगता है कि हम अपने रास्ते से भटक चुके हैं, मतदाताओं का विश्वास खो चुके हैं।
देश की आर्थिक स्थिति डगमग है, जबकि मौजूदा सरकार लंबे-लंबे दावे कर रही है कि हम दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था हैं। किसी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के बैंकों में गैर-निष्पादित परिसंपत्तियां (एनपीए) इस तरह जमा नहीं होती हैं, जैसा कि पिछले चार वर्षों में हुआ है। किसी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में किसान तनावपूर्ण, युवा बेरोजगार, छोटे कारोबारी बर्बादी के कगार पर और बचत व निवेश निराशाजनक तरीके से नहीं गिरा करते हैं, जैसा पिछले चार वर्षों में होता आ रहा है। अब इससे बदतर स्थिति क्या होगी? भ्रष्टाचार ने फिर से अपना बदसूरत सिर उठा लिया है और बैंकों में एक के बाद एक घोटाले उजागर हो रहे हैं। इतना ही नहीं घोटालेबाज बड़ी आसानी से देश से भागने में सफल भी हो रहे हैं और सरकार असहाय होकर निहारती रह जाती है।
महिलाएं पहले से भी ज्यादा असुरक्षित हो गई हैं। रेप आज हर दिन का कहानी बन गई है और बलात्कारियों के खिलाफ सख्ती से कदम उठाने के बजाय हम उसके समर्थक बन गए हैं। कई मामलों में हमारे अपने लोग ऐसे घृणित कार्य में शामिल रहे हैं। अल्पसंख्यक सहमे हुए हैं। सबसे खराब बात यह है कि अनुसूचित जाति-जनजाति और समाज के कमजोर वर्ग के लोगों के खिलाफ अत्याचार और भेदभाव बढ़ने के मामले बढ़ गए हैं, जो पहले कभी नहीं हुआ था। संविधान प्रदत्त सुरक्षा की गारंटी भी खतरे में पड़ गई है।
हमारी विदेश नीति का कुल योग प्रधानमंत्री द्वारा लगातार विदेशी यात्राओं और उनके समकक्ष विदेशी गणमान्य व्यक्तियों को गले लगाने तक सीमित हो गया है, भले ही इसे वो पसंद करते हों या ना। हम अपने पड़ोसी देशों के साथ भी मधुर संबंध बनाए रखने में विफल रहे हैं। चीन अक्सर हमारे हितों को काटता दिख रहा है। बड़ी सूझ-बूझ और जोखिम उठाकर भारतीय जवानों द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक भी बेअसर साबित हुई है, पाकिस्तान लगातार आतंक की खेप निर्यात कर रहा है और हम असहाय होकर सिर्फ देख रहे हैं। जम्मू-कश्मीर फिर से जलने लगा है। हर आम आदमी पीड़ित है जैसा कि पहले कभी नहीं था।
पार्टी का आंतरिक लोकतंत्र पूर्णत: ध्वस्त हो चुका है। पार्टी के मित्र व सहयोगी बताते हैं कि संसदीय दल की बैठक में सांसदों को बोलने का मौका तक नहीं दिया जाता है, जैसा कि पहले होता रहा है, लोग अपनी बात बैठक में रखते रहे हैं। अन्य दलों में भी संवाद अमूमन एकतरफा ही होता है। वे बोलेंगे और आपको सुनना होगा। प्रधानमंत्री के पास भी आपके लिए समय नहीं है। पार्टी मुख्यालय भी कॉपोरेट दफ्तर बन गया है, जहां सीईओ से मुलाकात असंभव है।
पिछले चार वर्षों में जो सबसे बड़ा खतरा उभरा है वो हमारे लोकतंत्र के लिए है। लोकतांत्रिक संस्थाओं की मर्यादा को कमतर और बदनाम किया गया है। संसद एक मजाक बनकर रह गया है। बजट सत्र में संसद में जारी गतिरोध को खत्म करने और संसद चलाने के लिए उपाय पर प्रधानमंत्री ने विपक्ष के वरिष्ठ नेताओं के साथ एक बार भी बैठना उचित नहीं समझा बल्कि उन्होंने इसके लिए विपक्ष पर आरोप मढ़ना उचित समझा। बजट सत्र के पहले पार्ट को सबसे छोटा रखा गया था। जब इसकी तुलना अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के शासन से करता हूं तो पाता हूं कि उन दिनों वाजपेयी जी का हमलोगों को सख्त निर्देश होता था कि विपक्ष के साथ हर हाल में सद्भाव बनाकर रखा जाय ताकि संसद सुचारू रूप से चल सके। इसलिए हमारे सामने संसदीय नियमों के तहत विपक्ष ने अक्सर स्थगन प्रस्ताव, अविश्वास प्रस्ताव और अन्य चर्चाएं सदन में पेश की थीं।
सुप्रीम कोर्ट के चार सबसे सीनियर जजों द्वारा प्रेस कॉन्फ्रेन्स करना देश के न्यायिक इतिहास में अप्रत्याशित घटना रही है। इससे हमारे देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था में टकराव की बात स्पष्ट तरीके से उजागर हुई। इन जजों ने बार-बार कहा कि हमारे देश में लोकतंत्र खतरे में है।
आज, ऐसा प्रतीत होता है कि संचार के साधनों, विशेष रूप से मीडिया और सोशल मीडिया पर नियंत्रण करके चुनाव जीतना हमारी पार्टी का एकमात्र उद्देश्य रह गया है। यह गंभीर खतरा है। मुझे नहीं पता कि आप में से कितने लोगों को अगले लोकसभा चुनाव में दोबारा टिकट मिलेगा लेकिन पिछले अनुभवों से कह सकता हूं कि आप में से आधे लोगों की तो निश्चित तौर पर छुट्टी होगी। अगर आपने चुनावी टिकट पा भी लिया तो भी आपकी जीत की संभावनाएं बहुत दूर हैं। पिछले चुनावों में बीजेपी को कुल 31 फीसदी वोट मिले थे, 69 फीसदी वोट बीजेपी के खिलाफ था। ऐसे में अगर विपक्ष एकजुट हुआ तो आप कहीं के भी नहीं रहेंगे।
मौजूदा परिस्थितियों की मांग है कि राष्ट्रीय हित में आप बोलें। मैं कम से कम उन पांच अनुसूचित जाति के सांसदों का शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने समुदाय की नाराजगी की बारे में और सरकार द्वारा किए गए वादाखिलाफी के बारे में आवाज तो उठाई। मैं आप सभी से अनुरोध करता हूं कि आप भी निर्भीक होकर हर मुद्दे पर अपनी बात बॉस के सामने रखें। अगर आप अब भी चुप रहते हैं तो आप देश को बड़ी हानि पहुंचा रहे हैं। भविष्य की पीढ़ियां आपको माफ नहीं करेगी। यह आपका अधिकार है कि आप उन लोगों से जवाब मांगें जो आज सरकार में हैं और देश को नीचे ले जा रहे हैं। देशहित में पार्टी का हित छोड़ना पड़ता है, वैसे ही जैसे पार्टी हित में व्यक्तिगत हितों को तिलांजलि देनी पड़ती है। मैं विशेष रूप से और व्यक्तिगत तौर पर आडवाणी जी और जोशी जी से अपील करना चाहता हूं कि देशहित में खड़े हों और उन द्वारा किए गए अद्वितीय बलिदानों को भविष्य की पीढ़ियों के लिए संरक्षित बनाए रखने के लिए सही समय पर सुधारात्मक कदम उठाएं।
इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि कुछ मामूली सफलताएं भी हमें हासिल हुई हैं लेकिन बड़ी असफलताओं ने उसे ढंक लिया है। मुझे उम्मीद है कि आप लोग इस पत्र में उठाए गए मुद्दों पर गंभीरता से विचार करेंगे। कृपया साहस करें, बोलें और देश एवं लोकतंत्र को बचाएं।