सऊदी के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान कथित उदारवादी सुधारों को लाकर सऊदी शासन की एक अलग छवि गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं । लेकिन सच इसके विपरीत है और माना जा रहा है कि अपनी आक्रामक घरेलू और विदेशी नीतियों पर पर्दा डालने के लिए ही वह इन सुधारों की आड़ ले रहे हैं। हैंयमन में सऊदी बमों से मरने वाले नागरिकों की बढ़ती संख्या, इस्तांबुल के सऊदी दूतावास में पत्रकार जमाल खशोगी की खौफनाक हत्या और रियाद के ईरान को लेकर आक्रामक रवैये की वजह से सऊदी के सुन्नी सहयोगी भी क्राउन प्रिंस को समर्थन देने के अपने फैसले पर दोबारा विचार करने को मजबूर हो गए हैं। यही वजह है कि उनके खिलाफ उठने वाली आवाजें बुलंद होती जा रही हैं।
हज के पैसे से हो रही हथियारों की खरीद
इसी का परिणाम है कि अप्रैल महीने में लीबिया के सबसे विख्यात सुन्नी मौलवी ग्रैंड मुफ्ती सादिक अल-घरीआनी ने सभी मुस्लिमों से इस्लाम में अनिवार्य माने जाने वाली हज पवित्र यात्रा का बहिष्कार करने की अपील की। उन्होंने यह भी दावा किया कि अगर कोई भी शख्स दूसरी बार हज यात्रा करता है तो यह नेकी का काम नहीं बल्कि पाप होगा। इस बहिष्कार की अपील के पीछे तर्क ये है कि मक्का में हज के जरिए सऊदी अरब की अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही है। मजबूत अर्थव्यवस्था के जरिए सऊदी की हथियारों की खरीद जारी है जिससे यमन और अप्रत्यक्ष तौर पर सीरिया, लीबिया, ट्यूनीशिया, सूडान और अल्जीरिया में हमलों को अंजाम दिया जा रहा है।
अगस्त 2018 मेंजारी हुआ थाफतवा
मौलवी सादिक का कहना है कि हज में निवेश करना, मुस्लिम साथियों के खिलाफ हिंसा करने में सऊदी की मदद करना होगा। सादिक पहले विख्यात मुस्लिम स्कॉलर नहीं हैं जो हज के बहिष्कार की अपील कर रहे हैं। इनके अलावा सुन्नी मौलवी और सऊदी अरब के प्रखर आलोचक युसूफ अल-काराडावी ने अगस्त महीने में फतवा जारी किया था जिसमें हज की मनाही की गई थी। इस फतवे में कहा गया था कि भूखे को खाना खिलाना, बीमार का इलाज करवाना और बेघर को शरण देना अल्लाह की नजर में हज पर पैसा बहाने से ज्यादा अच्छा काम है। सऊदी अरब का प्रभाव केवल राजनीतिक और सैन्य तौर पर ही नहीं है बल्कि इस्लाम के साथ इसका ऐतिहासिक रिश्ता भी काफी अहमियत रखता है।
इस्लामिकपंथों के मतभेद सेऊपर उठ चुका विरोध
इस्लाम के दो सबसे प्रमुख धार्मिक स्थल मक्का और मदीना दोनों सऊदी अरब में ही हैं और यहीं काबा और पैगंबर मोहम्मद की मजार भी है।यही वजह है कि सऊदी अरब का प्रभाव केवल अरब पड़ोसियों ही नहीं बल्कि लगभग मुस्लिम दुनिया पर है। हर साल करीब 23 लाख मुस्लिम हज के लिए मक्का जाते हैं। इस्लाम के साथ इस रिश्ते की वजह से सुन्नी अरब दुनिया नियमित तौर पर सऊदी शासन से मार्गदर्शन लेती रही है। हैरानी की बात यह है किपिछले कुछ दशकों के विपरीत इस बार सऊदी अरब का बहिष्कार पंथों के मतभेद से भी ऊपर उठ चुका है।2011 में रियाद ने बहरीन के अनुरोध पर विद्रोहों का बुरी तरह दमन कर दिया था। सुन्नी शासन वाले बहरीन में शिया मुस्लिमों ने प्रदर्शनों में हिस्सा लिया था। इराकी कार्यकर्ताओं ने सऊदी उत्पादों का बहिष्कार करने की अपील कर इस पर प्रतिक्रिया दी थी।
#boycotthajj कर रहा ट्रेंड
उस वक्त इराक के तत्कालीन प्रधानमंत्री नूरी अल-मालिकी ने कहा था कि अगर सऊदी नीत हिंसा जारी रहती है तो मध्य-पूर्व में पंथों के बीच युद्ध छिड़ सकता है। वर्तमान में सऊदी साम्राज्य के बहिष्कार की अपीलें केवल शिया समुदाय से नहीं आ रही हैं बल्कि हर समुदाय इस पर एकजुट हो रहा है। ट्विटर पर कम से कम 16,000 ट्वीट्स के साथ #boycotthajj ट्रेंड कर रहा है। दुनिया भर के सुन्नी मौलवी भी हज के बहिष्कार की अपील कर रहे हैं। ट्यूनीशियन यूनियन ऑफ इमाम ने जून महीने में कहा था कि हज से सऊदी प्रशासन को मिलने वाले पैसे का इस्तेमाल दुनिया भर के मुस्लिमों की मदद करने में नहीं किया जाता है बल्कि यमन की तरह मुस्लिमों की हत्या और उन्हें विस्थापित करने में किया जा रहा है। सऊदी की अर्थव्यवस्था में हज तीर्थयात्रा की बहुत बड़ी भूमिका है और इससे करीब 12 अरब डॉलर की आय होती है।
राजनीतिकरण करने का आरोप
हज से होने वाली कमाई तेल के अलावा सऊदी की आय का सबसे प्रमुख स्रोत है।सऊदी की सरकार द्वारा लग्जरी होटलों पर निवेश को देखते हुए 2022 तक तक इस कमाई के 150 अरब डॉलर पहुंचने की उम्मीद है। इस निवेश से सऊदी को काफी मुनाफा हो रहा है लेकिन बढ़ते खर्च की वजह से कई गरीब मुस्लिमों के लिए हज यात्रा मुश्किल हो गई है। यह पहली बार नहीं है जब किसी धार्मिक तीर्थयात्रा का राजनीतिकरण किया गया है। सऊदी अरब ने पिछले कुछ वर्षों में कतर और ईरान के नागरिकों को हज तीर्थयात्रा की अनुमति देने से इंकार कर दिया था। सऊदी अधिकारियों ने मक्का की पवित्रता का इस्तेमाल अपनी राजनीतिक विचारधारा का प्रचार करने में भी किया।